The core teachings of the book are:

* The Geeta is a scripture for all of humanity: The book emphasizes that the Geeta’s teachings are not limited to any particular religion or sect, but are universal.

* The path to self-realization: It provides guidance on achieving spiritual enlightenment and attaining peace.

* The nature of the Supreme Being and the soul: The book discusses the relationship between God and the individual soul, stressing the importance of surrendering to the Supreme Being.

* The significance of action and knowledge: It explains the concepts of karm (ordained action), vikarm (meritorious action), and yagya (worshipful meditation).

* The role of a Guru: The importance of having an enlightened teacher to guide one on the spiritual path is highlighted.

In essence, the book offers a comprehensive spiritual guide aimed at helping individuals from all backgrounds achieve self-realization and eternal peace through the teachings of the Geeta.

SRIMAD BHAGVAD GEETA

YATHARTH GEETA

LANGUAGE : HINDI (हिन्दी)

By Swami Adgadanand Ji Maharaj

CHAPTER SUMMARY

गीता क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के युद्ध का निरूपण है। यह ईश्वरीय विभूतियों से सम्पन्न भगवत्-स्वरूप को दिखानेवाला गायन है। यह गायन जिस क्षेत्र में होता है, वह युद्धक्षेत्र शरीर है। जिसमें दो प्रवृत्तियाँ हैं- धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र ।

इस अध्याय में कर्म की गरिमा, उसे करने में बरती जानेवाली सावधानी और स्थितप्रज्ञ के लक्षण बताकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन के मन में कर्म के प्रति उत्कण्ठा जागृत की है, उसे कुछ प्रश्न दिये हैं। आत्मा शाश्वत है, सनातन है, उसे जानकर तत्त्वदर्शी बनो। उसकी प्राप्ति के दो साधन हैं-ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोग।

इस अध्याय में उन्होंने कर्म को परिभाषित किया कि यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। सिद्ध है कि यज्ञ कोई निर्धारित दिशा है। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी किया जाता है, वह इसी लोक का बन्धन है। श्रीकृष्ण जिसे कहेंगे, वह कर्म ‘मोक्ष्यसेऽशुभात्’- संसार-बन्धन से छुटकारा दिलानेवाला कर्म है।

इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि इस योग को आरम्भ में मैंने सूर्य के प्रति कहा, सूर्य ने मनु से और मनु ने इक्ष्वाकु के प्रति कहा और उनसे राजर्षियों ने जाना। मैंने अथवा अव्यक्त स्थितिवाले ने कहा। महापुरुष भी अव्यक्त स्वरूपवाला ही है। शरीर तो उसके रहने का मकान मात्र है।

इस अध्याय में स्पष्ट किया कि यज्ञ-तपों का भोक्ता, महापुरुषों के भी अन्दर रहनेवाली शक्ति महेश्वर है।

इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि फल के आश्रय से रहित होकर जो ‘कार्यम् कर्म’ अर्थात् करने योग्य प्रक्रिया-विशेष का आचरण करता है, वही संन्यासी है और उसी कर्म को करनेवाला ही योगी है।

 

इस सातवें अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि- अनन्य भाव से मुझमें समर्पित होकर, मेरे आश्रित होकर जो योग में लगता है वह समग्र रूप से मुझे जानता है।

इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने सात प्रश्न किये कि- भगवन्! जिसे आपने कहा, वह ब्रह्म क्या है? वह अध्यात्म क्या है? वह सम्पूर्ण कर्म क्या है? अधिदैव, अधिभूत और अधियज्ञ क्या हैं और अन्तकाल में आप किस प्रकार जानने में आते हैं कि कभी विस्मृत नहीं होते? योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि जिसका विनाश नहीं होता, वही परब्रह्म है। स्वयं की उपलब्धिवाला परमभाव ही अध्यात्म है। जिससे जीव माया के आधिपत्य से निकलकर आत्मा के आधिपत्य में हो जाता है, वही अध्यात्म है।

इस अध्याय के आरम्भ में श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन ! तुझ दोषरहित भक्त के लिए मैं इस ज्ञान को विज्ञानसहित कहूँगा, जिसे जानकर कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा। इसे जानकर तू संसार-बन्धन से छूट जायेगा। यह ज्ञान सम्पूर्ण विद्याओं का राजा है। विद्या वह है जो परमब्रह्म में प्रवेश दिलाये। यह ज्ञान उसका भी राजा है अर्थात् निश्चित कल्याण करनेवाला है।

 

इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने कहा कि, अर्जुन ! मैं तुझे पुनः उपदेश करूंगा; क्योंकि तू मेरा अतिशय प्रिय है। पहले कह चुके हैं, फिर भी कहने जा रहे हैं; क्योंकि पूर्तिपर्यन्त सद्‌गुरु से सुनने की आवश्यकता रहती है। मेरी उत्पत्ति को न देवता और न महर्षिगण ही जानते हैं; क्योंकि मैं उनका भी आदि कारण हूँ।

इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने कहा-भगवन् ! आपकी विभूतियों को मैंने विस्तार से सुना, जिससे मेरा मोह नष्ट हो गया, अज्ञान का शमन हो गया; किन्तु जैसा आपने बताया कि मैं सर्वत्र हूँ, इसे मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ। यदि मेरे द्वारा देखना सम्भव हो, तो कृपया उसी स्वरूप को दिखाइये।

गत अध्याय के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि- अर्जुन ! तेरे सिवाय न कोई पाया है, न पा सकेगा- जैसा तूने देखा; किन्तु अनन्य भक्ति अथवा अनुराग से जो भजता है, वह इसी प्रकार मुझे देख सकता है, तत्त्व के साथ मुझे जान सकता है और मुझमें प्रवेश भी पा सकता है।

 

वस्तुतः क्षेत्र का स्वरूप व्यापक है। शरीर कहना तो सरल है; किन्तु शरीर का सम्बन्ध कहाँ तक है?, तो समग्र ब्रह्माण्ड मूल प्रकृति का विस्तार है। अनन्त अन्तरिक्षों तक आपके शरीर का विस्तार है। उनसे आपका जीवन ऊर्जस्वी है, उनके बिना आप जी नहीं सकते। यह भूमण्डल, विश्व, जगत्, देश, प्रदेश और आपका यह दिखायी देनेवाला शरीर उस प्रकृति का एक टुकड़ा भी नहीं है। इस प्रकार क्षेत्र का ही इस अध्याय में विस्तार से वर्णन है।

इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि- अर्जुन ! ज्ञानों में भी अति उत्तम परमज्ञान को मैं फिर भी तेरे लिए कहूँगा, जिसे जानकर मुनिजन उपासना के द्वारा मेरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं।

इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि संसार एक वृक्ष है, पीपल-जैसा वृक्ष है। पीपल एक उदाहरण मात्र है। ऊपर इसका मूल परमात्मा और नीचे प्रकृतिपर्यन्त इसकी शाखा प्रशाखाएँ हैं।

इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दैवी सम्पद् का विस्तार से वर्णन किया। जिसमें ध्यान में स्थिति, सर्वस्व का समर्पण, अन्तःकरण की शुद्धि, इन्द्रियों का दमन, मन का शमन, स्वरूप को स्मरण दिलानेवाला अध्ययन, यज्ञ के लिये प्रयत्न, मनसहित इन्द्रियों को तपाना, अक्रोध, चित्त का शान्त प्रवाहित रहना इत्यादि छब्बीस लक्षण बताये, जो सब-के-सब तो इष्ट के समीप पहुँचे हुए योग-साधना में प्रवृत्त किसी साधक में सम्भव हैं। आंशिक रूप से सब में हैं।

अध्याय के आरम्भ में ही अर्जुन ने प्रश्न किया कि- भगवन्! जो शास्त्रविधि को त्यागकर और श्रद्धा से युक्त होकर यजन करते हैं (लोग भूत, भवानी अन्यान्य पूजते ही रहते हैं) तो उनकी श्रद्धा कैसी है? सात्त्विकी है, राजसी है अथवा तामसी ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन ! यह पुरुष श्रद्धा का स्वरूप (पुतला) है, कहीं-न-कहीं उनकी श्रद्धा होगी ही। जैसी श्रद्धा वैसा पुरुष।

इस अध्याय में संन्यास का स्वरूप स्पष्ट किया गया कि सर्वस्व का न्यास ही संन्यास है। केवल बाना धारण कर लेना संन्यास नहीं है; बल्कि इसके साथ एकान्त का सेवन करते हुए नियत कर्म में अपनी शक्ति समझकर अथवा समर्पण के साथ सतत प्रयत्न अपरिहार्य है। प्राप्ति के साथ सम्पूर्ण कर्मों का त्याग ही संन्यास है, जो मोक्ष का पर्याय है। यही संन्यास की पराकाष्ठा है।